दबंग रिपोर्टर-रन्जीत पुरी गोस्वामी
राष्ट्रयोगी संत की शिष्या आर्यिका श्री ने दी, राष्ट्रसंत तरूण सागर जी के लिए विनयांजलि_
श्रावकों से कहा-अपनी श्रद्धा भक्ति में दर्शन करो।
रत्नत्रय साधना करो, अंत समाधि मरण वरो।
निज शुद्धात्मअनुभव से,मुक्ति रमा को वरो-वरो।मृत्यु महोत्सव हो•हो•
ही मुक्ति श्री दिलाये रे•जीवन है पानी की बूँद,कब मिट जाए रे••
बाहर के सिंहासन पर बैठने पर भी, सबसे सुन्दर सिंहासन होता है आत्मा के निर्मल भावों का सिंहासन।जब कोई भव्य जीव संसार, शरीर,भोग से विरक्त हो करके साधना के मार्ग को अपनाता है। जीवन की हर श्वास को साधना के लिए लगा देता है,ताकि वह अपने जीवन को परम सौंदर्य से श्रृंगार सके।अपने बीच वह क्षण उपस्थित है एक महान भव्य आत्मा मुनि श्री तरूण सागर जी महामुनिराज की समाधि हो गई।
आर्यिका श्री 105 विद्यान्तश्री माताजी ने कहा-अज्ञानी जन मरण को वरण न करना पड़े ऐसा सोचते हैं मरण की सूचना पाते ही घबड़ा जाते है।लेकिन जो ज्ञानी जन है वह मृत्यु से भयभीत नहीं होते।
*जो मृत्यु को महोत्सव के रूप में मनाता है वही मुक्तिवधु को प्राप्त कर पाता है।
सच्चा साधक अपनी आत्मा से प्रेम करने वाला होता है। मृत्यु को गले लगाता है मृत्यु से डरता नहीं है,क्योंकि वह जानता है कि जन्म है तो मरण भी है, डरने वाला नही हूँ मैं। एक पर्याय और कम हो गई उस मृत्यु को भी बड़े प्यार से गले लगाता है।
साधक सोचता है कि जब तक यह देह मुझे छोड़े उससे पहले मैं इसे छोड़ दूँ। ज्ञानी जन पुराने वस्त्र छोड़कर नये वस्त्र पहनते हैं। साधू के लिए भी शरीर वस्त्र की तरह होते है उनके लिए एक देह का त्याग कर नयी देह को धारण करना होता है। साधू सामायिक, प्रतिक्रमण क्यों करते हैं?क्योंकि वह अपने परिणामों को संभाल सके।इस देह को तो छोड़ना ही पड़ता है।
अभी हम हार रहे है क्यों? क्योंकि हम इस शरीर के नौकर बने हुए है ये हमसे कुछ भी करवाता है और हम कर देते हैं। लेकिन जो संतजन है वे अपनी आत्मा के नौकर बनते है शरीर के नहीं। साधना का फल समाधि है।जब यह देह नर्जीण हो जाती है जब इसका उपयोग नहीं किया जा सकता तब इस शरीर से ममत्व छोड़ देते हैं,आहार का त्याग कर देते है, विषय कषायों से मुंह मोड़ लेते है।
कर्तव्यों का पालन अपनी आत्मा के लिए करता है। साधक सामायिक पर बैठे हैं और उनके सामने कोई दुःखी, पीड़ा में व्यक्ति बैठा हो तो साधक क्या करेगा? वात्सल्य भाव रखेगा।और कोई कचड़ा डाल दे, अपशब्द कह दे तब साधक क्या करता है ? सामायिक करता है समता भाव में रहता है।
जब यह देह दुर्बल होता है तब आत्मा बलवान होता है।जो मोक्षमार्गी होता है वह आत्मबलि बन कर करता है।सल्लेखना दो प्रकार की होती है एक काय सल्लेखना दूसरी कषाय सल्लेखना ।शरीर को कष्ट पहुंचना, पीड़ा देना काय सल्लेखना है और शरीर के साथ- साथ कषायों को कृश करना कषाय सल्लेखनाहै। अपने स्वभाव को प्राप्त करने के लिए वह अपनी आत्मा के सम्मुख होता है।
आर्यिका श्री ने कहा मुनि श्री तरूण सागर जी एक महान संत, श्रेष्ठ तपस्वी,क्रांतिकारी राष्ट्र संत थे। जब हम मोक्षमार्ग पर आये भी नहीं थे तब से उनके "कडवे प्रवचन "से एक झलक सी बनी थी।देश व समाज के लिए बहुत जिए और अंत समय में अपने लिए।
प•पू •भावलिंगी संत राष्ट्रयोगी श्रमणाचार्य श्री 108विमर्शसागर जी महामुनिराज जब फीरोजाबाद में थे तब मुनि श्री तरूण सागर जी का वहां आना हुआ।जब संत मिलन की बात आती है तब आचार्य श्री बड़े ही आनंदित, प्रमुदित होते है।बहुत ही सुन्दर मिलन हुआ, आचार्य श्री के कक्ष में आये,आपस में मधुर वार्ता हुई, संघ में हम सभी के नाम पूंछे। तब देख कर लगा कि यह कितने सरल है कोई ख्याति लाभ पूजा वाले साधू नहीं है। मुनिराज श्री तरूण सागर जी के प्रवचनों ने जैन ही नहीं जैनेत्तर समाज में धर्म की क्रांति छेड़ दी थी।
आर्यिका श्री ने कहा कि एक साधक जन जन के लिए तो करता है ही लेकिन उसके लिए निज आत्मा की दुनिया ही सबसे प्यारी होती है।
कुछ दिन पहले ही मुनि श्री शरीर की अपेक्षा से अशक्य दिख रहे थे लेकिन उनके बोल इस प्रकार थे कि मेरा चारों प्रकार के अहारो का त्याग सभी से हाथ जोड़ कर क्षमा याचना की, गुरू संतों से क्षमायाचना की, क्षमायाचना से परिणामों में विशुद्धी आती है निर्मलता आती है जीवन भर उन्होंने जो साधना की उसका फल आज प्राप्त किया।उन्होंने शरीर का उपचार न लेकर आत्मा का उपचार किया।
श्री जिन आगम में आया है कि यदि कोई साधक अपने जीवन में उत्कृष्ट समाधि को साध ले तब वह दो तीन बवाल से ज्यादा संसार में नही रहता और जघन्य समाधि वाला सात आठ भव में संसार से पार हो जाता है।
आर्यिका श्री ने कहा कि हम अपने जीवन में जो धर्म तो करते हैं वह कहीं न कहीं किसी न किसी बवाल में काम आती है उसका फल आत्मा को अवश्य मिलता है।श्रेष्ठ परिणामों का श्रेष्ठ फल होता है। मुनि श्री तरूण सागर जी जैनेन्द्र भगवान के भक्त थे उनके बताये हुए मार्ग का अनुसरण करने वाले थे,श्रेष्ठ साधक थे।आप देवगति प्राप्त करके भी वहां पर भी धर्म का फल प्राप्त करना सम्यग्दर्शन को प्रबल करना। मंजिल है कर्मों से छूटना। उत्कृष्ट मंजिल मोक्ष को प्राप्त करना।
आर्यिका श्री ने तरूण सागर जी के विरह मे श्रावको को संबोधन देते हुए कहा कि- आज मृत्यु महोत्सव का दिन है हम जानते हैं कि भक्तों का हृदय दुःखी हो रहा है जब आदिनाथ भगवान को निर्वाण हुआ तब भरत को बहुत दुःख हुआ क्योंकि अब हमें आत्म हित की बात कौन बतायेगा ।
मुनि श्री तरूण सागर जी बाहर से तो जा सकते हैं लेकिन भक्तों की श्रद्धा से नहीं जा सकते।अपनी श्रद्धा,भक्ति मे उनके दर्शन करो और खुश रहो। लखनादौन समाज ने मुनि श्री के चरणों में विनयांजलि पुष्प अर्पित किए।